कुरान शरीफ की बेहुरमती नहीं करेंगे बर्दाश्त बोली तुर्की की जनता
टर्की और स्वीडन डिप्लोमेसी की तीखी तपिश में झुलस रहे हैं। धर्मग्रंथ को जलाने की इस घटना के बाद टर्की की सरकार ने स्वीडन पर इस्लामोफोबिया के सामने घुटने टेकने का आरोप लगाया है।

उस दिन डेनमार्क की राजनीतिक पार्टी स्ट्रैम कुर्स (Stram Kurs) के नेता रासमस पलुदन स्वीडन के माल्मो शहर में एक रैली निकालने वाले थे। यह रैली 'इसलामाइजेशन इन द नॉर्डिक कंट्रीज़' के नाम के नाम से होने वाली थी। लेकिन, पलुदन को पुलिस ने रैली निकालने की इजाज़त नहीं दी। साथ ही, उसी दिन उन्हें डिपोर्ट कर डेनमार्क भेज दिया गया। उनके स्वीडन आने पर दो साल का बैन भी लग गया। यह बात है 26 अगस्त 2020 की। इस घटना के दो साल चार महीने बाद यानी 21 जनवरी 2023 को पलुदन ने स्टॉकहोम शहर के बीचों बीच कुछ ऐसा कर दिया, जिससे स्वीडन की सरकार अब दुनियाभर के मुस्लिम देशों के निशाने पर आ गई है।
पलुदन ने टर्की के दूतावास के बाहर एक घंटा लंबा एंटी-इमीग्रेशन भाषण देने के बाद मुसलमानों की पवित्र पुस्तक कुरान को आग लगा दी। ऐसा करते वक़्त वहां प्रदर्शन कर रहे 100 लोगों के अलावा पुलिस बल की भारी मौजूदगी भी थी। दूतावास के बाहर लगी इस आग की लपटें जैसे दुनियाभर में फैल गईं। तभी से टर्की और स्वीडन डिप्लोमेसी की तीखी तपिश में झुलस रहे हैं। धर्मग्रंथ को जलाने की इस घटना के बाद टर्की की सरकार ने स्वीडन पर इस्लामोफोबिया के सामने घुटने टेकने का आरोप लगाया है।
वहीं, स्वीडन की सरकार अपने देश में फ्रीडम टू एक्सप्रेस के अधिकार का हवाला देकर डैमेज कंट्रोल में जुटी है। रासमस पलुदन को लेकर यह पहला विवाद नहीं। वह एक फार राइट डेनिश-स्वीडिश राजनेता हैं और इससे पहले भी ऐसे प्रोटेस्ट और कुरान जलाने के ऐलानों को लेकर चर्चा में रहे हैं। उन पर नस्लवाद और मानहानि समेत कई मामले पहले से ही दर्ज हैं। 2019 में जेल की हवा भी खा चुके हैं। जैसा कि आशंका थी, इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया सामने आई। टर्की में कई जगह स्वीडन विरोधी प्रदर्शन देखे जा रहे हैं। स्वीडन के राष्ट्रीय ध्वज को आग के हवाले किया गया। इस्लामी राजनीति के अगुवा बनने की जुगत में लगे एर्दोगन के समर्थन में कई मुस्लिम देशों ने स्वीडन की घेराबंदी शुरू कर दी है। हालांकि यह सब अचानक से नहीं हुआ।
इस तनाव की पटकथा लिखनी शुरू हो गई थी आठ जनवरी को ही। इसके बाद तेज़ी से कई घटनाक्रम ऐसे हुए कि दोनों देशों के बीच संघर्ष का होना तय माना जाने लगा। उस दिन स्टॉकहोम में प्रेस को संबोधित करते हुए स्वीडिश पीएम क्रिस्टर्सन ने साफ़-साफ़ कहा था, 'नैटो में एंट्री के बदल टर्की उनसे जो कुछ मांग रहा है, वह देना स्वीडन के लिए मुमकिन नहीं।' स्वीडिश पीएम का इशारा टर्की की उस मांग की ओर था, जिसमें वह बार-बार उन कुर्दिश समूह से जुड़े लोगों के प्रत्यर्पण की बात कर रहा था, जिन्हें कुर्दिश वर्कर्स पार्टी और गुलेन मूवमेंट से जुड़ा मानता रहा है।
क्रिस्टर्सन के बयान के बाद भी ऐसे विरोध-प्रदर्शन हुए और बातें आईं, जिनसे दोनों देशों में तनाव और बढ़ा। दरअसल विवाद की जड़ में स्वायत्त कुर्दिस्तान और उसकी मांग को लेकर अलग-अलग देशों में लड़ रहे कुर्द हैं। ये लोग टर्की के पहाड़ी इलाक़ों और सीमाई क्षेत्र के साथ-साथ इराक, सीरिया, ईरान और अर्मेनिया में रहते हैं। इस मसले को लेकर टर्की की संवेदनशीलता आज की नहीं है। टर्की इससे जुड़े पीकेके को आतंकी संगठन मानता है और आरोप लगाता रहा है कि मानवाधिकार के बहाने स्वीडन ने इसके आतंकियों को पनाह दी हुई है। वही, स्वीडन के पीएम कई बार साफ़ कर चुके हैं कि इन लोगों के प्रत्यर्पण का मामला कोर्ट के पाले में है, ना कि सरकार के। इस मसले पर हमने स्वीडन की पूर्व एमपी बोदिल वोलेरो से बात की।
बोदिल कहती हैं, 'स्वीडन में कई बरसों से कुर्द लोग रह रहे हैं, जो टर्की, सीरिया, ईरान और इराक के हालातों से भागकर यहां आए हैं। स्वीडन ऐसे लोगों का प्रत्यर्पण नहीं कर सकता, जिन्हें उसने शरण दी है। दूसरी ओर, स्वीडन में फ्री- स्पीच और ओपिनियन देने के अधिकार बहुत मजबूत हैं। आप जहां चाहें वहां ऐसे अधिकारों का प्रदर्शन कर सकते हैं। लोगों को फ्री स्पीच देने से तभी रोका जा सकता है, जब हिंसा भड़कने की आशंका हो। पुलिस उन लोगों की भी सुरक्षा करने को बाध्य है, जो अपने अधिकारों का ग़लत इस्तेमाल करते हैं। हालांकि हमारे देश की ज़्यादातर पॉलिटिकल पार्टियां इस घटना की निंदा कर रही हैं। यह पहली बार नहीं है, जब मौलिक अधिकारों की रक्षा की हमारी प्रतिबद्धता को लेकर मिडिल ईस्ट में प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। दूसरी ओर, फार राइट इस कार्ड को खेलना बहुत अच्छे से जानता है। इसी के ज़रिए उन्हें इस्लामोफोबिया को बढ़ाने में मदद मिलती है।
एर्दोगन ने साफ़ कर दिया है कि स्वीडन नैटो में शामिल होने की कोशिशों में टर्की से समर्थन की उम्मीद ना करे। हालांकि टर्की तभी से इस तरह के संकेत दे रहा था, जबसे फिनलैंड और स्वीडन ने नैटो की सदस्यता के लिए अप्लाई किया था। पिछले साल मई में नैटो की एंट्री का दरवाज़ा खटखटाने के दौरान ही टर्की ने इस एप्लीकेशन पर वीटो कर दिया था। टर्की की आपत्ति स्वीडन की राह में रोड़ा इसलिए बनी क्योंकि NATO के रूल्स के मुताबिक, सभी 30 सदस्यों से हरी झंडी मिलनी ज़रूरी है। लिहाज़ा स्वीडन के पास टर्की को मनाने के अलावा कोई चारा नहीं। पिछले साल अक्टूबर में प्रधानमंत्री का पद संभालते ही उल्फ क्रिस्टर्सन ने अंकारा का दौरा किया। इसके तुरंत बाद स्वीडिश विदेश मंत्री भी टर्की गए।
स्वीडिश सरकार ने एंटी टेरेरिज्म़ लॉ को सख्त किया। यह सब फिनलैंड और स्वीडन के साथ हुए एक त्रिपक्षीय एग्रीमेंट के तहत किया गया। इस एग्रीमेंट में टर्की ने कुछ शर्तें रखी थीं और कहा कि इसकी एवज में वह अपनी आपत्ति हटा लेगा। इसी समझौते के तहत टर्की ने कुर्दिश वर्कर्स पार्टी और गुलेन मूवमेंट से जुड़े लोगों की लिस्ट स्वीडन को सौंपी। लेकिन, स्वीडिश सरकार बार-बार यह कहती आ रही है कि उसका संविधान इस तरह के प्रत्यर्पण पर फैसले का अधिकार कोर्ट को देता है, सरकार को नहीं। इस बात में सच इसलिए भी नज़र आता है कि पिछले साल स्वीडन के कोर्ट ने टर्की की इस तरह की दो मांगें ठुकराईं। इसे लेकर आशंका इसलिए भी बढ़ गई है, क्योंकि टर्की ने एकतरफा फैसला लेते हुए हुए 27 जनवरी को होने वाली दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों की बैठक को टाल दिया है।
इस मीटिंग में स्वीडन की नैटो सदस्यता को लेकर बात होनी थी। तो क्या अब स्वीडन की सदस्यता अधर में लटक गई है? इस सवाल पर एक्सपर्ट्स अलग-अलग राय दे रहे हैं। ORF से जुड़े कबीर तनेजा कहते हैं, 'यूरोप में ऐसा पिछले कुछ समय से देखने को मिल रहा है, ख़ासकर सीरिया संकट के बाद इमीग्रेशन एक पोलराइजिंग फैक्टर की तरह उभरा है। स्वीडन में जो कुछ हुआ, उसे तात्कालिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उम्मीद है कि जल्द ही स्टॉकहोम और अंकारा कुछ रास्ता निकाल लेंगे।' ऐसा ही कुछ टर्की मामलों के जानकार और अंकारा की यिल्दिरिम बेयाज़ित यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रफेसर ओमेर अनस भी मानते हैं।
उनके मुताबिक, फिलहाल के लिए नैटो की सदस्यता का मामला 4-5 महीने टल सकता है, क्योंकि लोगों की भावनाएं कुरान वाले प्रकरण की वजह से भड़की हुई हैं। वहीं, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कमर आगा नैटो की सदस्यता के मसले को कुछ अलग तरीके से देख रहे हैं। वह कहते हैं, 'यह देखने वाली बात होगी कि टर्की के विरोध के बावजूद नैटो क्या स्वीडन को एंट्री कराने का कोई और रास्ता निकालने की कोशिश करेगा। इसमें दो बातें अहम रोल अदा कर सकती हैं।
पहली यह कि नैटो और पश्चिमी देशों के संबंध एर्दोगन के साथ अच्छे नहीं रहे। पश्चिमी गुट चाहेगा कि बाल्टिक क्षेत्र के देश स्वीडन और फिनलैंड को नैटो सदस्यता मिल जाए। इससे रूस के करीब आ जाएगा नैटो, जो रणनीतिक रूप से काफी अहम है।' इस विवाद की कड़ी कहीं ना कहीं टर्की में इस साल मई में होने वाले संसदीय चुनावों से भी जुड़ी है। कमर आगा कहते हैं, 'मई में होने वाले चुनावों के मद्देनज़र एर्दोगन लोगों का ध्यान बढ़ती महंगाई और आर्थिक तंगहाली से हटाने की कोशिश करेंगे, क्योंकि वैसे भी उनकी लोकप्रियता में खासी कमी आई है। इस वक़्त वह यूरोप की ओर ना देखकर एशिया और अफ्रीका में इस्लामी लीडरशिप की महत्वकांक्षा पाल रहे हैं। लिहाज़ा, कुरान जलाए जाने के मुद्दे को वह चुनाव तक हाथ से जाने नहीं देंगे।' हालांकि अनस इस राय से मुख्तलिफ़ सोचते हैं।
वह कहते हैं, 'ज़्यादातर लोग इस बात को भूल जाते हैं कि एर्दोगन की पार्टी का सपोर्ट बेस यूरोपियन यूनियन के फेवर में है। इसलिए अगर वह चुनाव में कहते हैं कि वह EU से और बेहतर संबंध बना सकते हैं, तो इससे उनके वोट बढ़ेंगे ही, कम नहीं होंगे। ऐसे में वह इस वोट बैंक को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठाएंगे।' कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट यह भी कह रही हैं कि हाल के दिनों में स्वीडन में जो तीखे प्रदर्शन टर्की के विरोध में दिखे हैं, उसके पीछे वहां रह रहे प्रो कुर्दिश गुटों का भी हाथ हो सकता है, ताकि स्वीडन और टर्की का समझौता मुकम्मल ना हो पाए।
हालांकि ओमेर अनस कहते हैं, 'फिलहाल मामला शांत होने के बाद समझौते का दबाव दोनों देशों पर होगा। एर्दोगन यूरोप के साथ अच्छे संबंध बनाते दिखाना चाहेंगे। वहीं, स्वीडन को भी टर्की के साथ एग्रीमेंट पर इस तरह अमल करना है कि उसकी साख EU में बनी रहे। यूक्रेन-रूस युद्ध में टर्की जिस तरह रूसी आक्रामकता को रोकने की कोशिश करता है, उसे नकारा नहीं जा सकता। इसलिए देर-सबेर दोनों देशों के बीच सहमति बन जाएगी। गुलेन मूवमेंट और पीकेके को विरोध की इस रणनीति से खासा कुछ हासिल नहीं होगा।
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