वैक्सीन हमारी बॉडी की ट्रेनिंग करती है, डिनायल मोड से बाहर आए
शुरुआत में डिनायल मोड होता है, जब धीरे-धीरे कोई भी बीमारी अपने पैर पसारती है। शुरुआत में लोगों को लगता है कि निपट लेंगे इससे भी, या हमें कुछ नहीं हो सकता।

देखिये हर पेन्डेमिक तीन स्टेज में आती है। शुरुआत में डिनायल मोड होता है, जब धीरे-धीरे कोई भी बीमारी अपने पैर पसारती है। शुरुआत में लोगों को लगता है कि निपट लेंगे इससे भी, या हमें कुछ नहीं हो सकता। जब वे देखते हैं कि हॉलीवुड मूवीज़ की तरह झटके खाकर, दौरे पड़कर, मुँह से झाग फेंकते लोग नहीं मर रहे, तो वे निश्चिंत रहते हैं कि सब चंगा सी। इतिहास में देखें तो महामारी के साइड में एक और महामारी नहीं हुआ करती थी, सोशल मीडिया कॉन्सपिरेसी थ्योरी विशेषज्ञ, कॉन्सपिरेसी थ्योरीज़ तो हर काल में हर महत्त्वपूर्ण घटना पर रही हैं, पर इतनी तेज़ी से ग्रॉस लेवल पर नहीं फैलती थीं। पिछले साल ही मेरी पोस्ट पर एक दद्दी लड़कर गई थीं कि कोरोना कुछ नहीं है, हम जैसे लोग पैनिक फैला रहे हैं, लोगों को डरा रहे हैं। सामान्य फ्लू है और जो मर रहे हैं, वे पहले से गम्भीर बीमारियों से त्रस्त बुज़ुर्ग हैं जिनको ज़रूरी चिकित्सा सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं, साथ ही वे पोस्ट करके और लोगों की पोस्ट्स में कमेंट में जा जाकर बताती थीं कि किस तरह वे मास्क नहीं लगा रहीं, फिज़िकल डिस्टेनसिंग का पालन नहीं कर रहीं और जो लगा रहे उनको भी 'जागरुक' कर रही हैं। आजकल वे क्या कर रही हैं, नहीं पता, न जानने की इच्छा है। क्या उन जैसे लोग अब इसकी ज़िम्मेदारी लेंगे, जितने लोगों ने लापरवाहियां की हैं उनकी वजह से। दुर्भाग्य से इनका बड़ा समूह था, अकेली नहीं थीं और उससे भी बड़ा दुर्भाग्य कि इनके हज़ारों फॉलोवर्स भेड़ बकरियों की तरह हाँ में हाँ मिला रहे और फैला रहे थे इनकी जासूसी थ्योरीज़ क्योंकि मास्क सेनिटाइज़र फिज़िकल डिस्टेनसिंग रखना और सोशल गेदरिंग अवॉयड करने से आसान था यह मान लेना कि कोविड महज षड्यंत्र है।
दुःखद यह है कि अब वैक्सिनेशन पर भी भ्रम फैलाए जा रहे हैं। जिसको जब जहाँ मौक़ा मिले, वैक्सिनेशन करा लें प्लीज़।
फिर दूसरी स्टेज आती है, जब लोगों को समझ पड़ने लगती है कि नहीं भाई, महामारी है और सचमुच विकट है। तब ढूंढी जाती हैं स्केपगोट्स। किसको ज़िम्मेदार ठहराया जाए कि अपनी लापरवाहियां छिप सकें। यह काम सरकारें, मीडिया और जनता तीनों अपने-अपने स्तर पर करती हैं, अपनी नाकामियों को ढंकने के लिए।
तीसरी स्टेज में फैलता है डर, जब हर कोई घबराकर अपने-अपने स्तर पर जान बचाने में जुट जाता है, अपनी और अपनों की, दूसरों की, तो कुछ आपदा में अवसर ढूंढकर दवाओं से लेकर ग्रॉसरी तक की काला-बाज़ारी, नकली सप्लाय, कई गुना क़ीमतें बढाकर नोट छापने में लग जाते हैं। तब 'सिस्टम' जी हाँ, सिस्टम बिखर जाता है पूरी तरह।
महामारी को आख़िर में गुज़र ही जाना होता है। आबादी के कुछ प्रतिशत हिस्से की बलि लेकर, बड़ी संख्या में संक्रमित करके, कुछ परमानेंट स्कार छोड़कर, इम्युनिटी डेवलप करके।
दिक़्क़त यह है कि हम लोग इतने फिल्मी हैं, अगर यह नहीं भी सोचते हैं कि क्रिश की तरह सीरम से वैक्सीन बनाकर पानी की टँकियों या हेलिकॉप्टर्स से छिड़काव कराकर तुरन्त सारी आबादी म्यूटेंट वायरस से मुक्त हो जाएगी, फिर भी यह तो सोचते ही हैं कि वैक्सीन तुरत-फुरत इम्यूनिटी डेवलप करके अभी के अभी रिज़ल्ट दिखाए नहीं तो बेकार है और तमाम तरह की कॉन्सपिरेसी तो ज़िंदाबाद है ही।
प्लीज़ एक बार हिस्ट्री उठाकर देखें, स्मॉलपॉक्स/चेचक का टीका सन् 1798 में बना लिया गया था लेकिन चेचक ख़त्म हुआ 180 साल बाद। प्लेग, सिफलिस, गोनोरिया जाते-जाते ही गए। जैपनीज़ ऐंसेफेलाइटिस, स्वाइन फ्लू, सार्स, मर्स, एड्स से हम लड़ ही रहे हैं अब तक।
वैक्सीन हमारी बॉडी की ट्रेनिंग करती है, सम्भावित शत्रुओं को पहचानकर उनसे लड़ने में। मैट्रिक्स की तरह अभी तक हमारी टेक्नोलॉजी उतनी डेवलप तो हुई नहीं है कि दिमाग़ में प्रोग्रामिंग चिप फिट कर दें, बस हो गया। समय लगता है और देना ही होगा इम्यूनिटी डेवलप होने में। माइल्ड साइड इफेक्ट्स भी होते हैं पर सबको नहीं और प्रॉफिट लॉस के हिसाब से देखें तो फ़ायदे ज़्यादा हैं। तो को-ऑपरेट कीजिये। मास्क और फिज़िकल डिस्टेनसिंग तो हर हाल में फॉलो करना ही है, अपने साथ दूसरों को भी जोखिम से बचाने के लिए।
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