दंगों की सियासत, एक पूंजीवादी दुश्चक्र
मुसलमानों के प्रति अभी जो हिंसा हो रही है, इसमें कई बातें नई हैं. अभी तक जब मुसलमानों, दलितों या आदिवासियों के प्रति हिंसा होती थी तब भी सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों पर हिंसा करने वालों का साथ देने का इलज़ाम लगता था, लेकिन सरकार और प्रशासन की ये पूरी कोशिश होती थी कि लोग उन पर भरोसा करें.

भारत इस समय मुसलमान विरोधी हिंसा का सामना कर रहा है. मुसलमानों के प्रति हिंसा भारत में कोई नयी बात नहीं है. आज़ाद भारत में मुसलमानों के प्रति हिंसा कम या ज़्यादा हमेशा ही होती रही है, मुसलमानों ने अपने प्रति हिंसा को कभी बर्दाश्त किया है तो कभी प्रतिकार भी किया है. लेकिन रिकार्ड्स की मानें तो ऐसी हिंसा में मुसलमानों को ही जान और माल का ज़्यादा नुकसान हुआ है. सरकार और प्रशासन पर ये आरोप लगता रहा है कि यहाँ बैठे लोग भी मुसलमानों के प्रति सौतेला बर्ताव ही करते हैं. कोर्ट पर भी मुसलमानों की ओर से अविश्वास जताया जाता रहा है.
मुसलमानों के प्रति अभी जो हिंसा हो रही है, इसमें कई बातें नई हैं. अभी तक जब मुसलमानों, दलितों या आदिवासियों के प्रति हिंसा होती थी तब भी सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों पर हिंसा करने वालों का साथ देने का इलज़ाम लगता था, लेकिन सरकार और प्रशासन की ये पूरी कोशिश होती थी कि लोग उन पर भरोसा करें. भाजपा शासित राज्यों में इस बार सरकार एवं प्रशासन की ओर से ऐसी कोशिश बिलकुल नहीं की जा रही है, उलटे दंगाइयों एवं आम जनता को सरकार और प्रशासन में बैठे लोग ये संकेत दे रहे हैं कि वो भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ हैं. पिछले कुछ सालों में दंगाई और पुलिस का एक साथ दिखना या दिल्ली के दंगों में पुलिस का दंगाइयों के साथ मुसलमानों पर हमला करना और रहस्यमय लोगों का पुलिस की ओर से जनता को मारना, ये सब नयी परिघटनाएं हैं. सत्ता विरोधी आंदोलनों में ये लगातार दिखाई दिया है कि पुलिस के अलावा सरकार समर्थक भी हमले करते हैं, अफ़सोस कि अभी तक ऐसे गुंडा तत्वों पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी है. हालिया मुसलमान विरोधी दंगों में भी सरकार और प्रशासन दंगाइयों के पक्ष में खड़ा हुआ नज़र आया है.
ये भी बिलकुल नई बात है कि तमाम संसदीय दलों ने मुसलमानों के विरुद्ध इस गैर कानूनी गतिविधि का विरोध करने का साहस नहीं दिखाया. विपक्षी दल भाजपा सरकार से डरते हैं या मुसलमानों के प्रति हिंसा और अन्याय में उनकी सहमति है, कहना मुश्किल है. ये भी हो सकता है कि उन्हें लगता हो मुसलमानों की पीड़ा में उनके साथ खड़े होने में उनका बहुसंख्यक समर्थन कम हो जायेगा या ये कि हम जिन्हें अलग अलग पार्टी समझते हैं, वो सभी भीतर से एक ही हों. इस पर आगे और बात करेंगे.
एक और नई बात हुई है, दंगाइयों के साथ लगातार पुलिस चल रही है, बावजूद इसके हिंदुत्व के पैरोकार बेधड़क दंगे फसाद कर रहे हैं, मुसलमानों पर एकतरफ़ा कार्यवाही ज़रूर नई नहीं हैं, लेकिन आरोप मात्र पर मुसलमानों के घर और दुकानों को सरकार द्वारा गिराना बिलकुल नई बात है. ऐसा पहली बार हो रहा है कि सरकार कानून, संविधान और कोर्ट को साइडलाइन करते हुए मनमर्जी के फैसले ले रही है वो भी ऐसी कि लोगों के घर बिना किसी पूर्व चेतावनी के गिरा दिए जायें. इस पर कोर्ट की ख़ामोशी भी बहुत हैरान करती है.
भारत की आर्थिक स्थिति फिलहाल बहुत ख़राब है, कोरोना दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है लेकिन पिछली लाखों मौतों से सरकार ने कोई सबक हासिल नहीं किया है. जनता ने भी सरकार से सवाल करने को अभी तक महत्व नहीं दिया है. दुनिया का सबसे मंहगा पेट्रोल भारत में बिक रहा है लेकिन जनता को कोई शिकायत नहीं है. लम्बे लॉकडाउन और स्कूलों के बंद रहने के बाद बच्चों की पढ़ाई अभी तक व्यवस्थित नहीं हो पायी है. लेकिन देश मुसलमानों की पीड़ा में आनंदित है.
हिन्दू बनाम मुसलमान की समस्या में जायज़ और नाजायज़ की बहस तो हो रही है लेकिन भारत के लगातार साम्प्रदायिकता के कीचड़ में धंसते जाने की कोई ठोस पड़ताल नहीं हो रही है. मैं यहाँ ऐसी ही एक कोशिश में आपका साथ चाहता हूँ. 1930 के आसपास ही ये बात बिलकुल साफ़ हो गयी थी कि पूँजीवाद आम जनता की ज़रूरतों को हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पायेगा. इस समय सोवियत संघ वजूद में आ चुका था, एक तरफ पूंजीवाद का संकट भस्मासुर बना हुआ था तो दूसरी तरफ़ पहली बार दुनिया के पटल पर समाजवादी हुकूमत कायम हो चुकी थी. ये हुकूमत हर पल दुनिया के अमीरों को डरा रही थी और दुनिया भर के मेहनतकशों का सहारा बन रही थी. इसी बीच दूसरा आलमी जंग शुरू हुआ. पूंजीपतियों ने वॉर इंडस्ट्री में पैसा झोंक दिया और खूब मुनाफा कमाया. पूंजीवाद का पहला भयानक संकट यहाँ टल गया. जब लड़ाई ख़त्म हुई तो उपभोगता वस्तुओं का बाज़ार खाली था, लिहाज़ा यहाँ एक बार फिर पूंजीपतियों ने खूब माल कूटा. लेकिन 1970 आते-आते पूंजीवाद फिर अपने ही खोदे कब्र पर खड़ा था. अब सरकारों के सामने जनकल्याण के कामों को रोक कर पूंजीपतियों को सँभालने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. ऐसे में इस बात का ख़तरा था कि जनता नाराज़ हो जाएगी और ऐसी सूरत में देश में इन्कलाब हो सकता है जो पूँजीवाद को मिटा सकता है. लिहाज़ा जनता के बीच पहले से मौजूद अतंर्विरोधों को आधार बनाकर उन्हें लड़ाने की योजना पर काम शुरू हुआ.
नस्ल, भाषा, मज़हब और जाति जैसे बुनियादों में दुनिया भर में आन्दोलन खड़े हुए, नयी पार्टियाँ वजूद में आयीं और सियासत में जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों के बजाय जनता की भावनाओं को केन्द्रीय स्थान मिला. हथियार उद्योग बिना लड़ाई के जी नहीं सकता था, लिहाज़ा आतंकवादी गिरोह तैयार किये गये, ये गिरोह जनता के अंतर्विरोधों के आधार पर खड़े किये गये राजनीतिक लड़ाइयों का भी हिस्सा बने. इस तरह 1970 के बाद जैसे जैसे जनता के बुनियादी सुविधाओं में कटौती होने लगी, भावनात्मक आधार पर लड़ाइयों को बल मिलता रहा.
भारत के सन्दर्भ में देखें तो यहाँ जातिगत अंतर्विरोध तो सदियों से था, लेकिन 1857 की क्रांति के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक ऐसा अंतर्विरोध पैदा किया गया जिसके आधार पर भारत जब आजाद हुआ तो इसके दो हिस्से हो चुके थे, और आज़ाद भारत भी साम्प्रदायिक नफ़रत से कभी मुक्त नहीं हो पाया. हिंदुत्व की सियासत करने वालों को उनके पसंद का मुल्क नहीं मिला था, इसलिए उन्होंने भारत को ही अपनी पसंद का राष्ट्र बनाने की मुहिम पर काम शुरू कर दिया. एक नये नवेले राष्ट्र को बिखरने से बचाने के लिए कांग्रेस बार बार साम्प्रदायिक ताकतों के समक्ष झुकती रही और देश धीरे धीरे उस प्रगतिशील स्थान से फिसलता रहा जहाँ आज़ादी के आन्दोलन ने इसे पहुंचा दिया था.
बाबरी मस्जिद में मूर्ति रख दी गयी लेकिन प्रथम प्रधानमंत्री इसे हटवा नहीं पाए, खुद उन्हीं की पार्टी के लोग हिंदुत्व के साथ खड़े हो गये. श्रीमती इंदिरा गाँधी जी को हमने साम्प्रदायिक ताकतों के सामने झुकते देखा और जनाब राजीव गाँधी साहब उनसे भी एक क़दम आगे गये. उनके बाद तो भारत के सियासत को लगातार हमने जाति और धर्म के दल दल में गिरते ही देखा है.
इस संक्षिप्त विश्लेषण से दो बातें साफ़ होती हैं, प्रथम, भले ही आरएसएस 1925 में ही बन चुकी थी लेकिन उसको सफ़लता तभी मिली जब भारतीय पूंजीवाद जनसरोकारों को पूरा करने में कमज़ोर हुआ. इस कमज़ोरी के बढ़ने के क्रम में हम साम्प्रदायिकता को भी बढ़ते हुए देखते हैं. यानि ये बात साफ़ है कि पूंजीवाद साम्प्रदायिकता जैसे टूल का उपयोग तभी करता है जब उसे जनता का ध्यान अपनी नाकामियों से हटाना होता है. यानि साम्प्रदायिकता पूंजीवादी सुरक्षा कवच है.
अब एक सवाल आपके मन में आना चाहिए कि मुसलमानों को ही लगातार निशाना क्यों बनाया जा रहा है? इसे समझने के लिए हमें ये देखना होगा कि भारत में मुख्यतः दो तरह के अन्तर्विरोध थे जिनके आधार पर जनता को बांटा जा सकता था, एक था जातीय अन्तर्विरोध और दूसरा था धार्मिक अंतर्विरोध. जाति के आधार पर भी देश में पार्टियाँ बनीं और उन्होंने कुछ राज्यों में सरकारें बनायीं, यहीं नहीं केंद्र में भी इन पार्टियों ने सरकार बनाने में सहयोगी की भूमिका निभाई. लेकिन जातीय अंतर्विरोध की एक सीमा है, सबसे पहले तो सवर्ण हिन्दू जातियां जो संयोग से सत्ता के विभिन्न केन्द्रों में शुरू से ही काबिज़ हैं, जातीय अन्तर्विरोध की सियासत उनके ख़िलाफ़ है. दरअसल शूद्र जातियां यानि कि पिछड़ा और दलित सवर्ण हिन्दुओं से संख्या बल में बहुत ज़्यादा हैं और एक लोकतान्त्रिक मुल्क में अगर शासक वर्ग अल्पसंख्यक है तो वो ऐसा रिस्क नहीं लेगा. इसके विपरीत मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता के कई लाभ हैं, शूद्र जातियों की सदियों की बग़ावत उनके हिंदुत्व की छतरी के नीचे आते ही हमेशा के लिए ख़त्म हो जाती है, दूसरे जाति व्यवस्था जो हिन्दू धर्म की आधारशिला एवं असमानता पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था है, इसके अंतर्विरोध पर मुस्लिम नफ़रत का कवर लग जाता है और इन अंतर्विरोधों को हल किये बिना ही हिंदुत्व की सियासत सुरक्षित हो जाती है.
इस सियासत का एक और लाभ हुआ, मुसलमानों से लड़ने के लिए सवर्ण हिन्दू नहीं जाता बल्कि हिंदुत्व की सदियों पुरानी व्यवस्था में शोषित रहा शूद्र वर्ग ही मुसलमानों से लड़ने में काम आ रहा है, लेकिन इस सियासत से पैदा होने वाली सत्ता पर फिर सवर्ण हिन्दू काबिज़ हो जाता है. इस तरह मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता दो बड़े मकसद पूरे करती है. प्रथम, पूंजीवाद की नाकामियों को छिपाने में मदद करती है और दूसरा, सत्ता वर्ग जो इत्तेफाक़ से सवर्ण हन्दू है, को सत्ता में बनाये रखने में भी मददगार साबित होती है. इसलिए इस सियासत को सत्ता में बैठा सवर्ण और पूंजीपति दोनों मिलकर बढ़ावा देते हैं और इसे एक प्रोजेक्ट की तरह संचालित करते हैं.
अब एक अहम् सवाल, मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता से सबसे ज़्यादा लाभ भारतीय जनता पार्टी को हो रहा है लेकिन इस सियासत के विरोध में दूसरे संसदीय दल खुल कर कभी नहीं बोलते, यहाँ तक कि कांग्रेस जैसी पार्टी जो बड़ी तेज़ी से अपने मिटते अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रही है, वो भी नहीं बोलती. इसके दो कारण हैं, एक तो भारत में हिन्दू बनाम मुसलमान से ज़्यादा शक्तिशाली और लाभकारी कोई और अंतर्विरोध नहीं है, जातीय अंतर्विरोधों पर आधारित पार्टियाँ मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिक सियासत में भाजपा से हार चुकी हैं. पूंजीवाद जिस मुकाम पर पहुँच चुका है वहाँ जनसरोकार की सियासत संभव नहीं है. ऐसे में सभी संसदीय दल बहुसंख्यक हिन्दू सियासत में ‘कुछ’ हासिल कर लेने की फ़िराक में रहते हैं, साथ ही डरा हुआ मुसलमान और कुछ जातीय गणित भी उनके काम आ जाती है. दूसरे, भारत की सभी संसदीय पार्टियाँ पूंजीवाद के भीतर ही हर समस्या का हल ढूढती हैं, यूँ भी कह सकते हैं कि पूंजीवाद की हिफाज़त करना ही इन सभी का काम है, और चूंकि भारत में मुसलमान विरोधी हिंसा, पूंजीवादी व्यवस्था का सुरक्षा कवच है इसलिए ये संसदीय दल यहाँ खामोश तमाशाई नज़र आते हैं.
अब एक अंतिम सवाल पर विचार कर लेते हैं. क्या सम्प्रद्यिकता भारत से कभी ख़त्म भी होगी? मेरा विचार है कि पूजीवादी व्यवस्था के भीतर इसके ख़त्म होने की कोई सूरत नहीं है. जिन आर्थिक समस्याओं के कारण पैदा हुए संकट से बचाव के लिए ये सियासत खड़ी की गयी है, आने वाले समय में ये संकट और बढ़ेगा. ऐसे में भावनात्मक मुद्दों पर जनता को लड़ाने की कोशिशों पर और ज़्यादा श्रम, तकनीक और पैसा ख़र्च किया जायेगा. बहुत से लोग आम आदमी पार्टी को अब तक की सभी सियासी पार्टियों का विकल्प समझते हैं, ऐसे लोगों का सपना बहुत जल्दी टूट जायेगा क्योंकि जिन जरूरतों को पूरा करने के दावे के साथ ये पार्टी लोगों के क़रीब जा रही है, उन्हें लगातार लम्बे समय तक पूरा करना पूरे देश में तो छोड़िये एक राज्य में भी संभव नहीं है.
सच तो यही है कि पूँजीवाद मुनाफे को दृष्टि में रखकर काम करता है और हमें ऐसे सिस्टम की ज़रूरत है जो ‘ज़रूरत’ के अनुसार काम करे. इस दुनिया को न तो अरबपतियों की ज़रूरत है और न भिखारियों की, न युद्ध की और न ही हथियारों की, न अकूत निजी दौलत की और न ही भुखमरी की. इसलिए पूंजीवाद के खात्मे के बिना सबके लिए सामान और सम्मानजनक जीवन हासिल करने का कोई रास्ता नहीं है. पूंजीवाद के रहते, जातिय, धार्मिक और नस्ली बुनियादों पर मारकाट होती रहेगी, ये मारकाट ही इस व्यवस्था को बचाए हुए हैं, जिस दिन लोग लड़ना छोड़ देंगे, उस दिन उनकी लड़ाई बेहतर जीवन के लिए सिस्टम से होगी और ये लड़ाई पूंजीपतियों और उनके दलालों, दोनों के लिए घातक है. जनता को तय करना है कि वो मुट्ठी भर सेठों के लिए आपस में लड़ते रहेंगे या इन सेठों से अपनी दुनिया छीनने की कोशिश करेंगे.
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