मुसलामानों पर झूठ के सैलाब में सच की तलाश
भाजपा जैसी पार्टी की सियासत से मुसलमान को निकाल दीजिये तो इनके पास करने के लिए कुछ नहीं बचता. यानि मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता पूंजीपतियों और भाजपा के अलावा सभी के लिए नुकसान देने वाली सियासत है

तथ्य और सत्य के साथ होना एक नैतिक और न्यायपूर्ण अवस्था है. आपकी राजनीतिक पक्षधरता कुछ भी हो लेकिन आपको तथ्य और सत्य के साथ होना ही होता है, पर क्या बिना राजनीतिक पक्षधरता के आप न्यायपूर्ण हो सकते हैं? सत्य और तथ्य निरपेक्ष क्या निरपेक्ष हो सकते हैं? उदाहरण के लिए अगर मेरे सामने दो व्यक्ति खड़े हैं तो मेरी पक्षधरता कुछ भी हो वो दो से तीन तो नहीं हो जायेंगे, पर क्या हम विषयवस्तुओं को सिर्फ़ देखते हैं? अगर ऐसा होता तो वस्तुओं की हमारे मन में कोई छवि निर्मित नहीं होती, जबकि हर वो चीज़ जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों से गुज़रती है उसको लेकर हमारी एक समझ होती है या बनती है, जिन वस्तुओं को लेकर हमारी कोई समझ नहीं बनती उनका हमारी ज्ञानेन्द्रियों से गुज़रना या न गुज़रना हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता. इसे एक और उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं, आप किसी रास्ते से गुज़र रहे हैं, आपके अगल बगल से अनेकों लोग गुज़र जाते हैं, लेकिन आप उन्हें देख कर भी नहीं देखते, उनकी कोई छवि आपके भीतर नहीं बनती, लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि किसी चेहरे को देख कर आप रुक जाते हैं या उसके बारे में सोचने लगते हैं, ऐसा जब भी होता है, आपका पूर्वज्ञान या आपके भीतर पहले से बनी कोई छवि का इससे सम्बन्ध होता है. यानि किसी वस्तु को हमारा देखना, सुनना या महसूस करना ही काफी नहीं होता बल्कि हमारा मस्तिष्क इस देखने, सुनने या महसूस करने को कैसे ग्रहण करता है, ये महत्वपूर्ण होता है. लेकिन मस्तिष्क का ऐसा करना भी हमारी अब तक की समझ और प्रशिक्षण से तय होता है.
इसलिए तथ्य सामान होते हुए भी वो हम सभी के भीतर एक जैसी समझ निर्मित नहीं करते, यानि सभी का ‘सत्य’ सामान हो ये बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है. हर तथ्य के साथ हमारा पूर्वज्ञान मिलकर हमारे लिए ‘हमारा’ सत्य निर्मित करता है. इसलिए पूँजीवादी विद्वान और मीडिया जब ‘तटस्थ’ ‘सत्य’ और ‘न्याय’ जैसी अवधारणाओं का इस्तेमाल करते हैं तो दरअसल वे इन्हें ‘व्यक्तिगत’ समझ के रूप में सीमित करने की कोशिश करते हैं. जबकि ‘सत्य’ और ‘न्याय’ को ‘व्यापक सामाजिक हित’ से इतर किसी और पैरामीटर से समझा ही नहीं जा सकता. सूचनाओं के बम्बार्डमेंट और चूरन मार्का ज्ञान बटोरने की हड़बड़ी को हमने अपनी ऐसी कमज़ोरी बना ली है कि हमारे इर्द गिर्द घट रही घटनाओं का विश्लेषण करते हुए सही समझ तक पहुँचना बहुत मुश्किल होता जा रहा है.
80 की दहाई से ही देश में सुनियोजित साम्प्रदायिकता को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन जब इस सियासत पर बात होती है, ये बात मीडिया करे, विद्वान हज़रात करें या आम लोग, आप देखेंगे कि ये कुछ तात्कालिक तथ्यों के इर्द गिर्द ही होती है, लेकिन इन तथ्यों को देखने का सभी का नज़रिया उनके पूराग्रहों से प्रेरित होता है. ऐसे में इस पूरी बहस का अंत अक्सर कटुतापूर्ण होता है. यहीं ये भी देखने की ज़रूरत है कि सियासी साजिशों के मामलों में क्या आम लोगों के पास इतने संसाधन होते हैं कि वो सत्य और तथ्य तक अपनी पहुँच बना सकें ! जाहिर सी बात है नहीं. ऐसे में सही और ग़लत का फैसला कैसे होगा ?
अभी जब मुसलमान विरोध नफ़रत एक सियासी टूल के रूप में देश के सीने को छलनी कर रहा है तब मुसलमान ही नहीं वो सभी लोग जो देश में शांति और सौहार्द बनाये रखना चाहते हैं, दुखी हैं. लेकिन इसी बीच मैं उनके उस नज़रिए को भी देख रहा हूँ जिससे वो देश और देश में घट रही घटनाओं को देखने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ उदाहरण लेकर समझने की कोशिश करते हैं. उत्तर भारत में दलितों के विरुद्ध दलक जातियों के अत्याचार आये दिन देखने को मिलते हैं, लेकिन सवर्ण जातियों से बात करते हुए ऐसा कई बार हुआ जब उन्होंने कहा “ये तो होते ही हैं मंद बुद्धि’ और भी बहुत कुछ जबकि दलित जातियों के बहुत से लोग सामान रूप ब्राह्मणों को बुरा भला कहते हैं. पटना के कई मित्रों से बात करते हुए एहसास हुआ कि यहाँ हर जाति के लोगों के बारे में अलग अलग धारणाएं हैं. यही हाल धर्मों के आधार पर भी पूर्वाग्रहों का है. लेकिन ये धारणाएं जब सत्य और तथ्य के रूप में काम करने लगती हैं, तब हमारी समझ ‘सही समझ’ नहीं बन पाती.
मायावती जी पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तो मेरे आसपास ऐसी कई घटनाएँ सामने आयीं जहाँ दलितों ने पहल करते हुए झगड़े किये और सवर्ण जातियों से पिट गये, कहीं कहीं इन्होंने भी पीटा. निजी तौर पर मेरे साथ भी ऐसा कुछ घटित हुआ जिसे मैं दलितों का दुस्साहस कह सकता हूँ. लेकिन यहाँ सत्य और तथ्य के विश्लेषण को अगर इग्नोर किया जायेगा तो फिर हम ग़लत समझ पर पहुँच जायेंगे. दलितों का दमन इस देश में कम हो या ज़्यादा, लेकिन आज तक बंद नहीं ही हुआ है. ऐसे में उनके बीच से ‘उनका अपना’ मुख्यमंत्री बन जाये तो ‘उनका मनबढ़’ हो जाना स्वाभाविक है, और इस मनबढ़ई में कुछ ग़लत कर जाना भी स्वाभाविक है. लेकिन उनका ये दुसाहस सदियों के दमन का परिणाम है, उम्र भर इकट्टा हुए अपमान का प्रकटीकरण है. इसे समझे बिना अगर हम तथ्यों के आधार पर किसी फ़ैसले पर पहुँचते हैं तो हम ग़लती करेंगे.
अभी जब हिंदुत्व की सियासत आतंक बन कर मुसलमानों को दहसतज़दा किये हुए है तब बैलन्सवादियों का तर्क कि ‘मुसलमान भी कम नहीं हैं’ इसी तरह का घटिया तर्क है. अभी बहुत से मुसलमान जो किसी सियासी दल से वाबस्ता हैं या पत्रकार हैं, इसी मानसिकता के साथ लगातार बात कर रहे हैं. ऐसे लोगों को मैं दो कटेगरी में रखता हूँ, एक वो जो इस बात से डरे हुए हैं कि उन्हें कोई ‘मुसलमानों का पक्ष लेने वाला’ न कहे, दूसरे वो लोग हैं जिन्हें तथ्य और सत्य को देखने का सलीका नहीं है क्योंकि उन्होंने ‘व्यापक जनसमुदाय के हित’ में खड़े होने को अभी तक चुना ही नहीं है. अब सवाल पैदा होता है कि जब सत्य और तथ्य को देखने और समझने के लिए हमारे पास ज़रूरी संसाधन ही नहीं हैं और हमारे ऊपर सूचनाओं की लगातार बारिस जारी है तो हम ये कैसे जानें कि वो कौन सा ‘सत्य’ है जिसके साथ हमें खड़े होना है?
इसका एक आसान सा तरीका है. उदाहरण के लिए भारत में पिछले सौ सालों से मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता का एक राजनीतिक अभियान के रूप में इस्तेमाल हो रहा है. हमारे सामने हर सांम्प्रदायिक घटना के बाद ये सवाल आकर खड़ा हो जाता है कि ‘सच क्या है?’ और जब हम ज़वाब ढूढने की कोशिश करते हैं तो सूचनाओं की अधिकता या सूचनाओं के अकाल में खोकर रह जाते हैं. इसी मुद्दे पर एक दूसरे एंगल से सोचिये, वो कौन से लोग हैं या वो कौन सा सियासी दल है जो मुसलमान विरोधी नफ़रत को बढ़ाते हुए राजनीतिक लाभ हासिल कर रहा है? जो इस नफ़रत की सियासत से लाभ ले रहा है वही इस नफ़रत को बढ़ाने और बनाये रखने का दोषी है, इसी तरह जिस व्यक्ति या समुदाय को इस राजनीति से व्यापक नुकसान हो रहा है, वो इस सियासी अभियान का पीड़ित पक्ष है. ऐसे में ये सवाल बिलकुल गौड़ हो जाता है कि तलवार या पत्थर किसके हाथ में थे या हैं.
इसे थोडा और स्पष्ट करता हूँ, आज आप सभी लोग आई टी सेल से वाकिफ़ हैं. यहाँ किसी जाति या धर्म के ख़िलाफ़ कोई कंटेंट तैयार किया जाता है, फिर इसी आई टी सेल के कुछ लोग पक्ष और विपक्ष में खड़े होकर बहस करते हैं, फिर समाज में इनके जैसे ही मानसिकता के लोग भी इसमें शामिल हो जाते हैं. इस देश में ऐसे कितने ही मामले सामने आये जब ‘हिन्दुओं’ ने ही मंदिरों में गोमांस फेंक दिया ताकि इसका इल्ज़ाम मुसलमानों पर लगाकर दंगा करवाया जा सके. ऐसा उन्हीं लोगों ने करवाया जो दंगे की सियासत से लाभ उठाने के स्थिति में होते हैं.
एक अंतिम बात है, मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता कम से कम दो लोगों को लाभ पहुँचा रही है. पूंजीपतियों के हित में लगातार काम हो रहा है और देश की जनता का संकट लगातार बढ़ रहा है, लेकिन मुसलमानों में बहुसंख्यक आबादी को उलझा दिया गया है इसलिए लोग इस लूटतंत्र को देखने की फुर्सत नहीं निकाल पा रहे हैं, दूसरे भाजपा जैसी पार्टी की सियासत से मुसलमान को निकाल दीजिये तो इनके पास करने के लिए कुछ नहीं बचता. यानि मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता पूंजीपतियों और भाजपा के अलावा सभी के लिए नुकसान देने वाली सियासत है. झूठ के सैलाब में अपना सच तलाशना आपकी ही जिम्मेदारी है. भारतीय जनता पार्टी को जो चाहिए, उसे कैसे हासिल करना है, इसका रास्ता इन्होनें ढूढ़ लिया है और पूंजीपतियों ने भी उस पार्टी को ढूढ़ लिया है जो उनके हितों के लिए समर्पित रहेगी. आप सोचिये कि आपका भविष्य क्या है और इसे कैसे सुरक्षित किया जा सकता है ! इसलिए किसके हाथ में पत्थर है और किसके हाथ में तलवार, इस पर बहस करने के बजाय ये देखिये कि आपके हाथ में क्या है, क्या चला गया और क्या जाने वाला है !
(देश और समाज को तोड़ने वाली ताकतों के पास सूचना प्रसारण के अकूत साधन हैं, ज़हर फ़ैलाने के उनके अभियान का मुक़ाबला करना है आज बहुत मुश्किल हो गया है, लेकिन देश के अमन, चैन और सौहार्द की अगर आपको भी चिंता है तो हमारी कोशिशों का हिस्सा बनिए, इस लेख को शेयर कीजिये !)
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