अखंड भारत, सपना या शिगूफ़ा
राजसत्ता जब जतना की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में नाकाम होती है तो आम लोगों को भावनात्मक मुद्दों पर तरह तरह से उलझाती है. भारत में हिंदुत्व की राजनीति अपने जन्म से लेकर आज तक यही करती रही है. चूंकि ये धर्म, राष्ट्र, देशप्रेम, सेना का सम्मान आदि पर हमेशा बात करते हैं, इसलिए लगता है कि इनके लिए देश, धर्म, राष्ट्र ही सर्वोपरि है. ये बातें जनता को भी अपील करती हैं. इन भावनात्मक मुद्दों का जादू देखिये

देश का बहुसंख्यक इनके पीछे बहा जा रहा है. लोगों के लिए महगाई, बेरोज़गारी, लुटता हुआ देश और दूर होती शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ अब कोई मसला नहीं है.
अखंड भारत का सपना बार बार जनता से शेयर किया जाता है और ये लोगों को अपील भी करता है, दिक्क़त ये है कि लोग तार्किक रूप से सोचते कम हैं इसलिए भावनात्मक मुद्दों के प्रवाह में बह जाते हैं और फ़रेबी सियासत के शिकार हो जाते हैं. इस लेख में मैं कोशिश कर रहा हूँ कि तार्किक तरीक़े से इस मुद्दे की पड़ताल करूँ और एक सही समझ तक पहुँचने की कोशिश करूं. सबसे पहले कुछ प्रश्नों को लेते हैं जिनके उत्तरों पर सोचते हुए हम एक सही समझ तक पहुँचने की कोशिश करेंगे.
जो लोग अखंड भारत का सपना जनता को बेच रहे हैं, खुद उनका राजनीतिक इतिहास क्या है? देश की अवधारणा क्या है और क्या हम सही अर्थों में एक देश बन पाए हैं? दो अलग देशों या राज्यों के एक साथ रहने या एक साथ आने के मौलिक आधार क्या होते हैं? क्या शक्ति के बल पर दो देशों का एकीकरण संभव है? वो कौन सी परिस्थितियाँ हैं जिनमें दो देशों में एकीकरण संभव होता है?
गुलाम भारत में दो हिन्दू संगठन बने, पहला हिन्दू महासभा और दूसरा राष्ट्रिय स्वं सेवक संघ. गुलाम भारत में पहले हिन्दू महासभा का लोगों में प्रभाव ज़्यादा रहा लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ आरएसएस ज़्यादा प्रभावशाली होती गयी. अभी हालत ये है कि महासभा अलग से दिखाई भी नहीं देती. हिंदुत्व की राजनीति पर पूरी तरह आरएसएस का ही कब्ज़ा है. सूचना के संसाधनों पर मज़बूत पकड़ के कारण आज इन्होंने खुद को राष्ट्र का लगभग पर्याय ही बना दिया है. बहुत से पढ़े लिखे और राजनीतिक तौर पर जागरूक लोग भी कहते हैं कि इनके लिए देश या राष्ट्र ही सबकुछ है. लेकिन इनका इतिहास इनकी इस वर्तमान इमेज़ का साथ नहीं देता. आजादी की लड़ाई में हिंदुत्व की राजनीति करने वालों का कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं है. उलटे इन्होनें आजादी की लड़ाई को बार बार कमज़ोर करने की कोशिश की और ब्रिटिश हुकूमत के प्रति पूरी तरह से वफ़ादार रहे. आज़ादी के उषाकाल में ही इन्होनें गाँधी जी की हत्या कर दी. देश के बटवारे के इल्ज़ाम से भी ये लगातार किनारा करते दिखाई देते हैं, लेकिन हिंदुत्व की सियासत के सभी बड़े नाम देश का बटवारा न सिर्फ़ चाहते थे, बल्कि ऐसी कोशिशों में बराबर के हिस्सेदार थे. लाला लाजपत राय ने लाहौर से प्रकाशित ट्रिब्यून में इस आशय के 12 लेख लिखे थे, इसके अलावा भी खूब सारे दस्तावेज़ी सबूत हैं जो हिंदुत्व की सियासत के पैरोकारों के देशप्रेम के दावों की पोल खोलते हैं. आज़ाद भारत में भी इन्होनें मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिक नफ़रत फ़ैलाने के अलावा और कोई काम नहीं किया है. जो लोग गुलाम भारत को आज़ाद करवाने की लड़ाई में शामिल नहीं हुए और इस लड़ाई को कमज़ोर किया और आज़ाद भारत में देश के दो बड़े धार्मिक समूहों, हिन्दू और मुसलमानों के बीच लगातार नफ़रत बढ़ाने की कोशिश की, जिनके सैकड़ों दंगों में शामिल होने का आरोप है, वही लोग अखंड भारत बनाने का सपना दिखाएँ तो इसे एक फूहड़ चुटकुला समझ के इग्नोर करना चाहिए. याद रहे भारत के 14 प्रतिशत मुसलमानों को ये लोग लगातार दुश्मन साबित करने में लगे हुए हैं, ऐसे में जब पाकिस्तान, बाग्लादेश और अफगानिस्तान सब साथ आ जायेंगे तो मुसलमानों की आबादी लगभग 40 प्रतिशत हो जाएगी, आपको लगता है ये ऐसा होने देंगे !
देश की अवधारणा पर अमूमन लोग गंभीरता से नहीं सोचते. हम बड़ी सहजता से कह देते हैं कि ‘हम तो देश से बड़ा प्रेम करते हैं’ ‘देशभक्त हैं’ लेकिन क्या ये इतना सरल और सहज है? इसकी थोड़ी पड़ताल करते हैं. अगर आप गाँव में रहते हैं तो अक्सर अपने गाँव के चारो तरफ़ देखने पर मालूम होता है कि चार चार गाँवों के बाद के गाँवों के नाम हमें पता नहीं होते, शहर में रहने वाले अपने ही बिल्डिंग में रहने वालों के नाम नहीं जानते. पड़ोसी को एक कटोरी चीनी देनी हो या दो चम्मच तेल तो नाप कर देते हैं. इस पर दावा ये कि हम उस देश से प्रेम करते हैं जिसमें लगभग 140 करोड़ लोग रहते हैं.
भारत में जाति व्यवस्था लगभग पूरे देश में पायी जाती है. जाति व्यवस्था ऊंच-नीच की अवधारणा पर आधारित है. अक्सर शूद्रों को सवर्ण जातियां प्रेम तो दूर उन्हें सामान्य सम्मान भी नहीं देतीं. देखा जाये तो शूद्र भी भारत हैं और सवर्ण भी, लेकिन ये एक दूसरे को सम्मान भी नहीं देते. देश के रूप में इनके बीच प्रेम की कल्पना भी कैसे की जा सकती है! इसी तरह के और भी अंतर्विरोध हैं जो हमें देश के रूप में एक नहीं होने देते.
ये भी सोचना चाहिए कि क्या दो देशों का एक साथ होना बिलकुल भी मुमकिन नहीं है? दो देश एक हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि इसके कुछ बुनियादी आधार तैयार हो जाएँ. लेकिन ये जानना ज़रूरी है कि देशों की सीमाओं का आम लोगों के जीवन से कोई लेना देना नहीं है, बल्कि इन सीमाओं के कारण हथियार उद्योग या वॉर इंडस्ट्री को बाज़ार मिलता है और इन सीमाओं के ही कारण बड़े पैमाने पर हथियारों का कारोबार होता हैं. इस धंधे में नेता, अफ़सर और दलाल कमीशन खाते हैं. ऐसे में ये लोग कभी नहीं चाहेंगे देश के नाम पर बनी सीमाओं का ख़ात्मा हो, हलांकि देश की सीमाओं का मिट जाना आम लोगों के लिए लाभप्रद ही है.
भारत अभी अपने भीटर जातीय और धार्मिक वैमनस्य को ख़त्म नहीं कर पाया है. फ़िलहाल देश में जो सियासत चल रही है, इसको देखते हुए लगता भी नहीं कि ये वैमनस्य निकट भविष्य में ख़त्म होगा, इसलिए अखंड भारत एक शिगूफे के अलावा और कुछ नहीं है. इसके बावजूद अगर भारत जातीय, धार्मिक, भाषाई अंतर्विरोधों को ख़त्म कर ले, विकास का ऐसा कोई मॉडल अपनाये जिसमें पूरे देश का विकास हो, सभी के लिए सभी आवश्यक सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध हों, तो इस मॉडल को दिखाकर हम अपने पड़ोसियों को साथ आने और मिलजुल कर विकसित होने का आमंत्रण दे सकते हैं. हलांकि पूजीवादी लूटतंत्र के रहते हुए ये भी एक सपना ही है.
क्या शक्ति के बल पर दो देशों का एकीकरण संभव है? आजकल जो लोग अखंड भारत का सपना बेचते हैं, उन्हें लगता है कि शक्ति के बल पर किसी देश को अपने साथ मिलाया जा सकता है. इतिहास के एक कालखंड में ऐसा होता था, उस दौर को हम उपनिवेसवादी दौर कहते हैं. आज दुनिया के शक्तिशाली देश भी किसी देश पर सीधे कब्ज़ा नहीं करते. ज़्यादा से ज्यदा वो अपनी मर्जी की हुकूमत बनवाते हैं. जैसे अभी पाकिस्तान की सियासत के बारे में चर्चा है कि इमरान खान को अमेरिकी दख़ल की वजह से सत्ता छोड़नी पड़ी है या युक्रेन के राष्ट्राध्यक्ष को अमेरिकी पपेट कहा जा रहा है. ऐसे ही और भी देशों के हालात हैं. भारत में एक छोटा सा राज्य कश्मीर पूरी तरह सैन्य छावनी बना हुआ है फिर भी हम पूरी तरह उसे नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं. कश्मीर में हर सात आदमी पर एक सैनिक है. इससे एक बात तो बिलकुल साफ़ है कि छोटे से छोटे मुल्क को भी सैन्य ताक़त के बल पर कोई देश अपने देश का हिस्सा नहीं बना सकता.
दो या कुछ देश मिलकर एक देश बन सकते हैं लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि ऐसा होना सामान्य रूप से सभी के हित में हो, अभी भारत की जनता जाति और धर्म के नाम पर इस कदर बटी हुए है कि लाखों लोग हर पल मौत के साये में जीते हैं, ऐसे में ये सोचना कि हमारा कोई भी पडोसी देश हमारे साथ मिलकर रहना चाहेगा, एक ख़याली पुलाव के सिवा कुछ नहीं है. इसके विपरीत अगर एक देश के लोग धर्म, जाति या नस्ल के आधार पर लड़ते रहें तो उनका एक साथ रहना कठिन हो जाता है और कई बार तो ऐसी लड़ाइयों के कारण देश के भी टुकड़े हो जाते हैं.
धार्मिक वैमनस्य भारतीय जनता पार्टी की सियासत का आधार है, अगर सचमुच इनका सपना अखंड भारत जैसा कुछ है तो सबसे पहले इन्हें भारत में मुसलमानों पर हमले बंद करने होंगे और शूद्रों को अन्य जातियों के बराबर समझना होगा. ये दोनों ही काम इनके सियासी वजूद को ही ख़त्म कर देगा. इसलिए ये अपना वजूद बचायेंगे और अखंड भारत को एक जुमला मान कर भूल जायेंगे. आप भी भूल जाइये और अपने रोज़ी और रोटी की फ़िक्र कीजिये, जिसे हासिल करना दिन बदिन मुश्किल होता जा है.
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