जज्बाती मुद्दों पर राजनीतिक विमर्श और हमारे सरोकार
सम्प्रदायिक, जातीय या नस्लीय सियासत को तब राजसत्ता, धर्म सत्ता और पूँजीसत्ता का भरपूर समर्थन मिलता है जब राजसत्ता आम जनता के बजाये पूंजीपतियों पर देश के पैसे लुटाने के लिए विवश होती है.

सोशल मीडिया ने राजनीतिक विमर्श को आम आदमी के लिए बेहद सरल बना दिया है, कल तक नुक्कड़ की चाय की दुकान पर अख़बार और एक छोटा सा समूह होता था जहाँ लोग सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री तक के भविष्य के फैसले करते थे, लेकिन आज सबके मोबाइल में सूचनाओं की विविधता और विशेषज्ञों की राय, दोनों ही जानने और समझने की सुविधा है. ये सुविधा कब किसके लिए तो सिर्फ़ सुविधा होगी और किसके लिए असुविधा, ये इस बात से तय होता है कि सूचनाओं के बेहतर इस्तेमाल के अवसर किसके पास ज़्यादा हैं, इस पैरामीटर पर आज सत्ताधारी दल का मुकाबला कोई भी दूसरा समूह करने की स्थिति में नहीं है. ये बात जहाँ लोगों को निराश करती है वहीँ एक चुनौती भी प्रस्तुत करती है. आपकी ताकत भले ही बहुत कम हो लेकिन अगर आप व्यापक सामाजिक हित को सामने रखते हुए विमर्श का संचालन करते हैं तो आज भी कुछ सार्थक करने के हालात ख़त्म नहीं हुए हैं. यहाँ मैं कुछ बेहद ज़रूरी सावधानियों की तरफ़ आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जिनसे जनसरोकार की सियासत को विमर्श में बनाये रखने में सुविधा होगी.
किसी भी मुद्दे पर चर्चा के लिए ज़रूरी है कि हम ये देखें कि उसका हमारे जीवन से कैसा सम्बन्ध हैं. वो मुद्दे जिनका सम्बन्ध हमारी भावनाओं से है, वो हमें अपील तो बहुत करते हैं लेकिन इनसे जीवन में कोई बदलाव नहीं आता. आप देखेंगे कि सियासी दल हमेशा आपको ऐसे ही मुद्दों पर बात करने के लिए प्रेरित करते हैं. इस तरह के विमर्श से जहाँ सियासी दलों को सत्ता हासिल होती है वहीँ जनता के प्रति उन्हें कोई जिम्मेदारी नहीं निभानी पड़ती. पिछले लगभग तीन दशक की भारतीय राजनीति जाति और धर्म के मुद्दों पर ही घूम रही है और भाजपा जैसी पार्टी जनता के लिए बिना कुछ सार्थक किये लगातार जीत के रिकॉर्ड बना रही है. यहाँ हम देखते हैं सियासी दल कामयाब होते हैं, अमीरों के लिए काम करते हैं लेकिन जनता के रूप में हमें कुछ भी हासिल नहीं होता.
यानि यहाँ सियासी विमर्श हमारी भावनावों से तो जुड़ता है लेकिन हमारे जीवन यानि रोज़ी-रोटी से नहीं जुड़ता. जाति और धर्म के विमर्श में हिस्सेदारी लेकर हमने हमारी रोज़ी और रोटी से जुसे विमर्श को कमज़ोर कर दिया है. यानि यहाँ हम जाने-अनजाने सियासी दलों के मोहरे बन गये, जबकि हमें हमारे जीवन से जुड़े मुद्दों पर ही डटे रहना था, नकारात्मक सूचनाओं की निरंतर बारिश में ये आसान तो नहीं है लेकिन हम कोशिश करें तो नामुमकिन भी नहीं है.
इसी तरह एक और पैरामीटर है, किसी भी विषय पर बात करने के लिए समय का चुनाव. हर मुद्दे पर हर समय बात नहीं की जा सकती. इसी तरह हर मुद्दे को देश और काल के परिप्रेक्ष्य में देखना होता है, इनसे काट कर कभी भी किसी मुद्दे पर बेहतर समझ नहीं बनाई जा सकती. 1947 से पहले आधुनिक अर्थों में भारत जैसा कोई देश नहीं था, लेकिन जब हमारे बीच चतुर सियासी दल हिन्दू बनाम मुसलमान का विमर्श खड़ा करते हैं तो ऐसे बात करते हैं जैसे भारत सदियों पुराना देश हो. यहाँ कई लोग सहज भाव से पूछ बैठते हैं कि “तो क्या भारत के लोग, नदियाँ, पहाड़, खेत और जंगल एक दम से 1947 के बाद वजूद में आ गये?” इस तरह के सवाल के पीछे देश और भौगोलिक क्षेत्र में फ़र्क न कर पाने की कमज़ोरी है. भारत 1947 से भौगोलिक क्षेत्र के रूप में तो था लेकिन आज की तरह एक देश नहीं था. यही नहीं इस भौगोलिक इलाक़े में जो देश थे उनकी सीमायें बदलती रहती थी. ऐसे में देश के साथ जो प्रेम की भावना आज आप अपने भीतर महसूस करते हैं, ये पहले नहीं थी, यही नहीं हिन्दू और मुसलमान का जो अंतर्द्वंद आज सियासत का मुख्य आधार बना हुआ है, ये भी नहीं था. इसलिए ये समझना भी ज़रूरी है कि देश की अवधारणा जो आज है वही दो सदी पहले नहीं थी और हो सकता है कि अगली सदी में ये अवधारणा फिर से बदल जाये. लेकिन सियासी दल यही चाहते हैं कि आप उनके फैलाये झूठ के दायरे में ही सोचें, ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने हित व अहित का फ़ैसला खुद करें.
पिछले दिनों जब धर्म की आड़ में गुडों ने मुसलमानों पर देश के कई इलाकों में हमला किया तो प्रशासन और जनता के बड़े हिस्से का भी समर्थन इनके पक्ष में दिखाई दिया. इस मुद्दे पर सोशल मीडिया में तीन खेमे नज़र आये, एक वो खेमा जो मुसलमानों की पीड़ा में आनंदित हुआ और खुले तौर पर इस कार्यवाही की प्रशंसा की, एक खेमा इसके बिलकुल विरुद्ध था और उसने इसकी भर्त्सना की. लेकिन एक ख़ेमा ऐसा था जो पढ़ा लिखा था, उसे न्यायपूर्ण भी दिखना था और साम्प्रदायिक नफ़रत को सपोर्ट भी करना था. इस खेमे ने अपने दोगलेपन को ख़ूबसूरत तर्कों में छुपाने की कोशिश की.
इसके कुछ तर्क ये थे, “मुसलमान भी कट्टर होते हैं” “मुसलमानों को पत्थर नहीं फेकने चाहिए थे” मुसलमान अपने छतों पर पत्थर स्टोर करके रखते हैं” ये और ऐसे ही कई तर्क दिए गये. इन पर लम्बी बहस हो सकती है, मैंने इन सभी पक्षों पर लेख लिखे हैं, यहाँ कुछ बेहद ज़रूरी मुद्दों पर संक्षेप में बात करूंगा. भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता इतनी ताकतवर कभी नहीं हो सकती कि वो देश और समाज को कोई बड़ा नुकसान पहुँचा सके. इसके कई कारण हैं, जैसे मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रशासन, संसद और विधानसभाओं और न्यायपालिका का समर्थन कभी नहीं मिल सकता. इसी तरह मुसलमान देश की सिर्फ़ 14 प्रतिशत आबादी बनते हैं और वो भी बहुत बिखरे हुए हैं, इसलिए भारत जैसे देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर आधारित सियासत कभी भी एक सीमा से ज़्यादा विकसित नहीं हो सकती. इस साम्प्रदायिकता से फासीवादी सियासत तो जन्म नहीं ले सकती लेकिन मुसलमानों पर इसी तरह एकतरफ़ा सरकारी कार्यवाही होती रहे या इन पर हमला करने वाली प्राइवेट मिलिशिया को राजनीतिक समर्थन इसी तरह मिलता रहे तो मुसलमानों का उदारवादी तबका कमज़ोर होता जायेगा और कालान्तर में इससे आतंकवादी आन्दोलन पैदा हो सकता है, अगर ऐसा होता है तो ये स्थिति देश और मुसलमानों, दोनों के ही हित में नहीं होगी, आज जब हमारे पड़ोसियों से रिश्ते लगातार ख़राब होते जा रहे हैं तब इस संभावना को देश के जिम्मेदारों को गंभीरता से लेनी चाहिए. लेकिन हिन्दू साम्प्रदायिकता को जनता, प्रशासन, संसद और विधानसभा और न्यायपालिका, सभी का समर्थन मिल सकता है. इसलिए भारत में हिन्दू साम्प्रदायिकता देश और जनता के लिए हमेशा खतरनाक ही होगी. लेकिन पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों में जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक है वहां मुस्लिम साप्रदायिकता फासीवादी सियासत का आधार होगी. इसलिए साम्प्रदायिकता पर विमर्श के दौरान जो लोग हिन्दू और मुसलमानों के बीच संतुलन बनाकर बात करने की कोशिश करते हैं वो या तो मासूम हैं या फिर चालाक.
इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि हिन्दू साम्प्रदायिकता पर कोई भी संसदीय दल खुल कर नहीं बोलता क्योंकि उन्हें डर रहता है कि ऐसा करने पर उन्हें बहुसंख्यक समाज का वोट नहीं मिलेगा. जबकि हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन हथियारबंद दस्ते के रूप में अपने आंदोलनों का सञ्चालन करते हैं, खुलेआम मस्जिदों, दरगाहों और मुसलमानों के घरों पर हमले करते हैं.
आप मुसलमानों से इसी तरह के आन्दोलन की उम्मीद नहीं कर सकते, लेकिन कल्पना करें कि ‘अगर मुसलमान ऐसा करें तो जनता, प्रशासन, सियासत और न्यायपालिका का रुख इनके प्रति क्या होगा?’ इसका ज़वाब आप अर्नब गोस्वामी और सिद्दीक कप्पन के मामले में देख सकते हैं. अर्नब गोस्वामी जहाँ बेहद गंभीर आरोपों के बावजूद आराम से जमानत पाकर बाहर आ गये वहीँ सिद्दीक कप्पन बिना किसी गंभीर आरोप के आजतक जेल में हैं. नागरिकता कानून के विरोध में हुए अन्दोनल पर दो हिन्दू युवकों ने गोली चलाई, दोनों आज जेल से बाहर हैं जबकि शाहरुख़ ने दंगाई भीड़ से बचने के लिए गोली चलाई लेकिन आज तक जेल में है. यानि हन्दू साम्प्रदायिकता जैसे जैसे स्वीकार्य होती जाएगी, लोकतंत्र के सभी आधार कमज़ोर होते जायेंगे. इसलिए इस देश में हिन्दू साम्प्रदायिकता पर बात करना, उसे रोकना ज़्यादा ज़रूरी है और ये सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक हिन्दू जनता के भी हित में है.
एक अंतिम बात, साम्प्रदायिक, जातीय या नस्लीय सियासत को तब राजसत्ता, धर्म सत्ता और पूँजीसत्ता का भरपूर समर्थन मिलता है जब राजसत्ता आम जनता के बजाये पूंजीपतियों पर देश के पैसे लुटाने के लिए विवश होती है. इसलिए हम जितना हमारे जीवन से जुड़े मुद्दों पर विमर्श करेंगे उतना ही साम्प्रदायिक सियासत कमज़ोर होगी, हलांकि बेहद आसान दिखने वाली ये कोशिश कितनी मुश्किल है, ये हम हमारे इर्द गिर्द के लोगों को देख कर समझ सकते हैं.
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