अध्यात्म धर्म है या राजनीतिक हथियार ?
सूक्ष्म और सॉफ्ट रूप से सियासत की एक और धारा चलती है, जिसे अध्यात्मिक धारा कहते हैं. अध्यात्मिक धारा को निजी तौर पर मैं साजिश नहीं मान पाता. इसका प्रस्थान बिंदु दुःख मुक्ति के भाव में हैं और ये धारा मनुष्यों के बीच किसी तरह का भेदभाव भी नहीं करती. हलांकि ये परम्परा निर्दोष दिखाई देती है, लेकिन इसका दोष इससे सम्बंधित व्यक्तियों में नहीं बल्कि इसकी प्रक्रिया में है.

अध्यात्म और इन्कलाब दोनों का प्रस्थान बिंदु एक ही है, लेकिन दोनों ही धाराओं के सफ़र की शुरूआत जिस विश्लेषण के आधार पर होती है, वो अलग है. अध्यात्म किसी अदृश्य जगत में या अपने ही शरीर और मन के किसी अदृश्य तल पर परम आनंद के स्रोत की कल्पना करता है, ये महज़ कल्पना है या इसमें कुछ तथ्य भी है, कम से कम अभी इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है, लेकिन अभी तक किसी तथ्यात्मक प्रमाण के न मिलने के कारण इसे कल्पना मानना ही बेहतर होगा.
इन्कलाब की धारा कहती है कि जीवन में दुःख है, लेकिन इसका कारण भौतिक है, अगर दुःख का कारण भौतिक है तो इसका समाधान भी भौतिक जगत में ही मिलेगा. एक सामान्य सा सत्य है कि जहाँ समस्या होती है वहीँ से उसका समाधान भी निकलता है. धरती की समस्या के लिए समाधान धरती पर ही ढूढना होगा, आसमान कि ओर देखने से कोई समाधान हासिल नहीं होगा. हमारे दुःख के कारणों में भूख, बीमारी, बेरोज़गारी, सम्बन्धों में संकट आदि होते हैं. शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और गरिमापूर्ण जीवन अगर हासिल हो जाये तो अमूमन जीवन दुखमय नही होगा. लेकिन हम जिस दुनिया में रहते हैं, उसमें हमारे ज़रूरत की हर चीज़ भले ही पर्याप्त से ज़्यादा हो, हमें आसानी से हासिल नहीं होती और अक्सर तो तमाम कोशिशों के बाद भी हासिल नहीं होती. अब जीवन को सुखमय बनाने का कोई भी प्रयास जीवनोपयोगी वस्तुओं और स्थितियों को सुलभ कराने की दिशा में होना चाहिए और ये पूरा प्रयास भौतिक ही होगा.
इस सच के बावजूद भी कि अध्यात्मिक जगत के तमाम प्रयासों से किसी भी व्यक्ति का जीवन सुखमय नहीं हुआ है, भारत में लोग अध्यात्मिक दुनिया के प्रति बहुत ज़्यादा आकर्षित हैं. भारत जैसे गरीब देश में अध्यात्म एक ऐसे बिजनेस के रूप में उभरा है जिसमें कभी किसी भी तरह का नुकसान नहीं होता, अध्यात्मिक दुनिया का मामूली प्यादा भी शानदार लग्ज़री जीवन जीता है साथ ही बिजनेस और राजनीति जगत में उसका महत्वपूर्ण दख़ल होता है. इस पहेली को समझने की कोशिश करते हैं.
एक कारण तो ऐतिहासिक है. भारत में कम से कम तीन हज़ार साल से दर्शन में भौतिकवादी चिंतन धारा की मौजूदगी दिखाई देती है, लेकिन इस चिंतन धारा को धार्मिक धारा से व्यापक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, धार्मिक चिंतन धारा चूंकि राजा को ईश्वर का प्रतिरूप स्थापित करती है और राजा जो ईश्वर का ही प्रतिरूप है जनता के लिए उसके हर आदेश को सर झुकाकर स्वीकार करना सहज हो जाता है, अतः राजाओं का समर्थन धार्मिक चिंतन के पक्ष में रहा. इसके दो परिणाम सामने आये, भौतिकवादी चिंतन धारा के लोगों का दमन हुआ, उनके साहित्य मिटा दिए गये. आज लोकायत और चार्वाक के साहित्य हमें उनके विरोधियों के उद्धरणों में मिलते हैं और इन्हीं से उनके बारे में अनुमान किया जाता है.
इस तरह सदियों से भौतिकवादी चिंतन धारा को लोगों के बीच फैलने नहीं दिया गया और धार्मिक चिंतनधारा को राजा, पुरोहित और समाज के धनिक वर्ग का समर्थन मिला, सदियों तक इस दिशा में किये गये काम का परिणाम ये हुआ कि देश की जनता ने या यूँ कहें कि भारतीय मानस ने इसे सहजता से स्वीकार कर लिया. भारत में जिस धार्मिक चिंतन धारा को व्यापक स्वीकृति मिली वो ब्राह्मणवाद है. इसने वक्त के साथ अपना नाम बदला या दूसरों के दिए गये नाम को स्वीकार किया. यहीं नहीं वक्त ज़रूरत अपने धर्म के मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ किये बिना, अन्य परम्पराओं के प्रतीकों को सहजता से स्वीकार किया. उदहारण के लिए ब्राह्मणवाद का मूल स्वरूप है जाति व्यवस्था, इस व्यवस्था को ब्राह्मणवाद ने कभी भी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया. लेकिन देश भर में स्थानीय लोगों के लोक देवताओं को इसने सहजता से स्वीकार किया. हर सदी में कुछ नये देवता या देवी ब्राह्मणवादी धर्म में शामिल होते रहे. इसके साथ ही इस धार्मिक परम्परा में एक और बात दिखाई देती है, ये परम्परा हमेशा समय के शक्तिशाली व्यक्ति या समूह के साथ खड़ी हो जाती है. ये कोई राजा हो, सुल्तान हो या आज के दौर के पूंजीपति. ब्राह्मणवादी धार्मिक परम्परा कभी भी आम आदमी के सहारे आगे नहीं बढ़ती, बल्कि देशकाल में मौजूद शक्ति के केंद्र पर कब्ज़ा करती है या कब्ज़ेदारों के साथ खड़ी हो जाती है. इससे इस चिंतन परम्परा के विरोधी कमज़ोर पड़ जाते हैं.
यहाँ तक का विवरण कितना राजनीतिक है, ये आपको समझ आएगा. लेकिन इसी के साथ सूक्ष्म और सॉफ्ट रूप से सियासत की एक और धारा चलती है, जिसे अध्यात्मिक धारा कहते हैं. अध्यात्मिक धारा को निजी तौर पर मैं साजिश नहीं मान पाता. इसका प्रस्थान बिंदु दुःख मुक्ति के भाव में हैं और ये धारा मनुष्यों के बीच किसी तरह का भेदभाव भी नहीं करती. हलांकि ये परम्परा निर्दोष दिखाई देती है, लेकिन इसका दोष इससे सम्बंधित व्यक्तियों में नहीं बल्कि इसकी प्रक्रिया में है.
लगभग हर धार्मिक परम्परा में रहस्यवाद या अध्यात्म की भी धारायें मौजूद हैं. इस परम्परा के लोग कुछ कर्मकांडों के ज़रिये अपने ही शरीर के भीतर या इस जगत में या इस जगत से परे किसी खास अवस्था में पहुँचने का दावा करते हैं जहाँ दुःख मिट जाता है. एक उत्सुक व्यक्ति के लिए सबसे बड़ी दिक्क़त ये है कि इन परम्पराओं का अध्ययन करने के लिए तथ्य के रूप में कुछ भी नहीं है, बहुत से लोगों के अनुभव जरूर दर्ज़ हैं लेकिन ये तय करना संभव नहीं है कि ये अनुभव हैं या कल्पना या भरम. ऐसे में इस परम्परा का अध्ययन बहुत मुश्किल है. अध्यात्मिक परम्परा में दुःखमुक्ति के लिए किये जाने वाले सभी प्रयास व्यक्तिगत हैं, यहाँ सामूहिक रूप से अगर कोई प्रयास होता भी है तो भी उसका परिणाम व्यक्तिगत ही होता है. इसके साथ ही एक व्यक्ति के प्रयास का फल किसी और के काम नहीं आता. इस तरह ये धर्म की ये चिंतन धारा आपको एक भूलभुलैया में लाकर छोड़ देती है.
ऐसे में क्या इस परम्परा की उपादेयता समझने के लिए हमारे पास कोई और तरीका है? इस पर सोचा जा सकता है. मसलन, भारत में लाखों लोग अध्यात्मिक साधना में लगे, कुछ ने अपना पूरा जीवन इसमें लगाया, कुछ ने कुछ साल और कुछ अपने रोज़ रोज़ के जीवन से थोडा समय इसमें लगाते हैं. ये काम इस देश में कम से कम तीन हज़ार साल से तोफ हो ही रहा है. लाखों लोगों के इन प्रयासों में कितने लोग दुःख से मुक्त हुए इसका कोई ब्यौरा नहीं है, लेकिन एक बात तो साफ़ है कि भारत के लोग महामारी में मरते रहे, बिमारियों से मरते रहे, भूख और गरीबी से मरते रहे लेकिन अध्यात्मिक साधना में जीवन खपाने वाले इसका कोई उपाय नहीं ढूढ़ पाए. यही नहीं भारत का समाज और राजव्यवस्था पर धर्म गुरुओं का प्रभाव था, अतः अगर राजसत्ता के ज़रिये भी जीवन को सुखमय बनाने के कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए तो इसका भी दोष किसी हद तक धर्मगुरुओं पर है.
एशिया पूरी तरह धर्म में जकड़ा हुआ है, जिस वक्त लोग यहाँ महामारियों से मर रहे थे, यहाँ लोग इस्लाम, बौद्ध और ब्राहमण धर्म का पालन कर रहे थे, लेकिन जब यूरोप के वैज्ञानिकों ने टीकों का इजाद किया तब जाकर लोग महामारियों से बच पाए और लोगों का जीवनकाल भी लम्बा हुआ. यहाँ के लोगों की धार्मिक जड़ता का ये हाल है कि प्लेग के जब टीके लगाये जा रहे थे तो यहाँ के पढ़े लिखे उच्चवर्ग के लोगों ने इसका विरोध किया था. आज भी ऐसे टीकाकरण का विरोध किसी हद तक होता ही है.
इस देश और एशिया के कई दूसरे देशों में भी धर्म आधारित जड़ता पर सैकड़ों साल तक निर्बाध रूप से काम हुआ, जो लोग वैज्ञानिक चिंतन परम्परा को आगे बढ़ाने की कोशिश करते उनका दमन किया जाता, आज भी ऐसे कई लोगों की हत्या की जाती है, और हत्या करने वाले ऐसा अपने धार्मिक विश्वास के कारण करते हैं ऐसे हत्यारे समूह या व्यक्ति को आज का शक्ति संपन्न तबका बचाता है.
दूसरे आलमी जंग के बाद दुनिया में सम्पदा तेज़ी से चोटी के अमीरों की झोली में सिमट रही है, इससे समाज के बहुसंख्यक की खरीदने की क्षमता भी घटती जा रही है, इस कारण अमीरों की दुनिया जो वस्तुओं और सेवाओं के बेचने के लिए ही सृजित करती है, उसे ग्राहक नहीं मिलते. इस संकट का स्वाभाविक परिणाम ये होना था कि लोग उठते और ‘मुनाफ़े पर आधारित व्यवस्था’ को पलट कर ‘ज़रूरत पर आधारित व्यवस्था’ में बदल देते, इससे दुनिया में न तो अरबपति बचता न ही भिखारी और हर किसी की हर ज़रूरत पूरी होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ऐसा न हो इसके लिए बहुत से काम किये गये, धर्म और अध्यात्म का भी इसके लिए इस्तेमाल हुआ.
रहस्यवादी परम्पराओं कि निस्सारता हलांकि आज की दुनिया को समझ आ गयी थी, लेकिन उन्हें झाड़ पोछ कर फिर से नये फ्लेवर में लांच किया गया. भांति भांति के बाबा वजूद में आये और उन्होंने जलेबी छाप भाषा में प्रवचन देना शुरू किया. इनमें कुछ हिन्दी तो कुछ अंग्रेज़ी तो कुछ दूसरी ज़बाने बोलते हैं, इस तरह ये समाज के हर वर्ग को संबोधित करते हैं. योग, सूफी, ध्यान आदि परम्पराओं की कुछ विधियों का उपयोग किया जाता है. ज़िन्दगी के थपेड़ों से थका हुआ मन इनसे कुछ राहत भी महसूस करता है, लेकिन जीवन का सत्य या जीवन की कठोरता पर इसका कोई असर नहीं होता. इस तरह के कामों को अमीर लोग खूब समर्थन करते हैं, ऐसे मिशन को को कभी भी धन की कमी नहीं होती, साधक भी अपने गुरुओं को खूब दान देते हैं. गुरु लग्ज़री ज़िन्दगी जीता है और भक्त भरम के सागर में गोते लगाते हैं, सबसे ज़्यादा लाभ में होता है पूंजीपति जो निर्द्वंद होकर दुनिया भर की सम्पदा बटोरने में लगा रहता है.
अंतिम बात, दुःख मुक्ति के उपाय के रूप में धर्म और अध्यात्म ने अब तक जो काम किया है, उसका मानव जीवन या इस जगत पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, उलटे इसकी वजह से मनुष्य और पर्यावरण को भरी नुकसान हुआ है. आज हमारे जीवन में सुख के जो भी साधन हैं वो हमें धर्म नहीं बल्कि विज्ञान के कारण मिले हैं, वही विज्ञान जिसके मार्ग को अवरुद्ध करने के लिए धर्म ने हमेशा ही प्रयास किया है और आज भी कर रहा है. ऐसे में ये फैसला हमें करना होगा कि धर्म और अध्यात्म में वक़्त बरबाद करें, बेवजह एक दूसरे का गला काटें या सम्पदा से भरपूर इस धरती को चंद अमीरों की जागीर बनने से रोकें ताकि धरती सौन्दर्य के चरम को छू सके !
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